नई दिल्ली. आखिर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने का विरोध क्यों कर रहे हैं लाल कृष्ण आडवाणी? सुषमा स्वराज और मुरली मनोहर जोशी को मोदी से क्या तकलीफ है? मोदी ने जिस आरएसएस का गुजरात में दमन किया उस संघ परिवार में अचानक मोदी-प्रेम क्यों उमड़ आया? इन सभी सवालों के जवाब देश जानना चाहता है।
मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर भाजपा के पार्लियामेंट्री बोर्ड का फैसला एक औपचारिकता मात्र है। 12-सदस्यीय इस बोर्ड में मोदी के पक्ष में आठ लोग हैं। लेकिन बड़े फैसलों के लिए पार्टी में वोट विभाजन की परंपरा नहीं है। इसलिए नेतृत्व आम सहमति की कोशिश में लगा है।
उसकी उम्मीद का कारण आडवाणी और जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं का अतीत में किया व्यवहार है।
मोदी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने पर आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था। मनाए जाने पर अगले दिन वापस ले लिया।
इसी तरह बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले में चार्जशीट होने के बाद मुरली मनोहर जोशी ने भी सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया था। फिर दो दिन बाद वापस ले लिया था। इस प्रकरण को शोले फिल्म के एक सीन से तुलना करते हुए एक अंग्रेजी दैनिक ने शीर्षक दिया था - जोशी सेज़, सुसाइड कैंसिल।
इस बार, आडवाणी के मोदी विरोध की दलील है मध्य प्रदेश विधानसभा के दो महीने बाद होने वाले चुनाव। आडवाणी को मनाने गए राजनाथ सिंह जैसे नेताओं से उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश की 26 विधानसभा सीटों पर अल्पसंख्यक वोट प्रभावी हैं। यदि मोदी की वजह से पार्टी ये सीटें हार जाए और दस साल से सत्ता पर काबिज शिवराज सिंह को गद्दी छोडऩी पड़े, तो यह कदम लोकसभा चुनाव के लिहाज से भी आत्मघाती साबित हो सकता है। इसलिए तीन महीने रुकने में कोई हर्ज नहीं है।
वैसे भी लोकसभा चुनाव अभी सात महीने दूर हैं। इतने लंबे समय तक मोदी की चुनावी मुहिम को धारदार बनाए रखना न सिर्फ कठिन है बल्कि खर्चीला भी। चूंकि सुषमा मध्य प्रदेश से ही सांसद हैं इसलिए उन्हें आडवाणी की दलील में दम दिख रहा है।
आडवाणी के बाद वरिष्ठतम नेता जोशी मोदी का नेतृत्व पचा नहीं पा रहे हैं।
मोदी समर्थकों का मानना है आडवाणी की दलील खोखली है। उन्होंने आडवाणी से भी पूछा कि 2009 के लोकसभा चुनाव से दो साल पहले ही उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया था। इस बीच कई विधानसभा चुनाव हुए जिनमें से किसी में कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा। बाबरी मस्जिद ध्वंस में उनकी भूमिका और कट्टरपंथी होने की छवि के बावजूद। तो मोदी की उम्मीदवारी का विपरीत प्रभाव कैसे और क्यों पड़ेगा?
मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने गुजरात की वे सभी सीटें जीतीं जहां अल्पसंख्यक वोट निर्णायक थे। तो मध्य प्रदेश में विपरीत प्रभाव कैसे पड़ सकता है। अगर पड़ेगा तो भी एक-दो पर न कि सभी 26 सीटों पर।
दरअसल, आडवाणी भाजपा में अप्रासंगिक हो गए हैं और न तो वे इस बात को स्वीकार कर पा रहे हैं और न ही मोदी के नेतृ्त्व को। इसलिए वे उनकी दावेदारी को पहले लंबित और फिर खारिज करने का रास्ता तलाश रहे हैं।
आडवाणी खेमा उनकी लोकप्रियता और ताकत को कम कर तो आंक ही रहा है। दूसरी ओर, मोहन भागवत जैसे संघ के शीर्ष नेताओं का कहना है कि उन्होंने देश भर में मोदी की लोकप्रियता को खुद महसूस किया है। यही वजह है कि गुजरात में जिस मोदी ने विश्व हिंदू परिषद, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ के नेताओं के खिलाफ कड़े फैसले लिए, पूरा संघ उसी के पक्ष में एकजुट हो गया है।
संघ भाजपा पर भी दबाव बना रहा है कि जल्द से जल्द मोदी को आगे करे जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग उनके पीछे आएं। संघ के नेताओं को लग रहा है कि यदि वे मोदी के पक्ष में उठ रहे जनसमर्थन को स्वर नहीं देंगे तो वे खुद अप्रासंगिक हो जाएंगे।
वहीं भाजपा नेताओं का मानना है कि सत्ता वापस पाने का इससे अनुकूल अवसर शायद फिर न मिले। यदि भाजपा सत्ता में आती है तो श्रेय मोदी के अलावा पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी मिलेगा।
मोदी के नाम पर अगर दूसरे दल भाजपा को समर्थन देने में आनाकानी करें तो राजनाथ प्रधानमंत्री पद के स्वत: दावेदार होंगे।
इस पूरे प्रकरण में कई विरोधाभास उभरे हैं। आडवाणी द्वारा मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ जाने पर सबसे पहला विरोध सुषमा ने किया था। फिर पूरी पार्टी ही उनके खिलाफ हो गई थी।
अकेले मोदी ही पूरी ताकत से आडवाणी के पक्ष में खड़े थे।
आज सुषमा ही आडवाणी के साथ है और मोदी खिलाफ। इसी तरह जोशी और मोदी मिलकर कुशाभाऊ ठाकरे के बाद सुंदर सिंह भंडारी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने में जोरशोर से लगे थे।
आज जोशी मोदी के विरोध में हैं
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